मंगलवार, 27 मई 2025

330. पहला गोलमेज सम्मेलन

राष्ट्रीय आन्दोलन

330. पहला गोलमेज सम्मेलन



1930

प्रवेश :

दांडी यात्रा के साथ सविनय अवज्ञा आन्दोलन के रूप में भारतीय राष्ट्रीय स्वतन्त्रता का ऐसा संघर्ष शुरू हुआ जिसने स्वतंत्रता आंदोलन की ज्वाला को पूरे देश में व्यापक रूप से फैलाने में निर्णायक भूमिका अदा की। नमक यात्रा के कारण ही अंग्रेजों को यह अहसास हुआ था कि अब उनका राज बहुत दिन नहीं टिक सकेगा और उन्हें भारतीयों को भी सत्ता में हिस्सा देना पड़ेगा। जिस समय सविनय अवज्ञा आन्दोलन  और सरकार का दमन चक्र अपने चरम पर था, उसी समय भारत के वायसराय लॉर्ड इर्विन ने सरकार को यह प्रस्ताव दिया कि भारतीय नेताओं तथा विभिन्न वर्गों के प्रतिनिधियों से सलाह-मशविरा कर भारत की संवैधानिक समस्याओं का निर्णय किया जाए। ब्रिटेन के प्रधान मंत्री रामसे मैकडोनाल्ड इरविन से सहमत थे कि गोलमेज सम्मेलन आयोजित किया जाना चाहिए, क्योंकि साइमन कमीशन की रिपोर्ट की सिफारिशें अपर्याप्त थीं। इस लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए ब्रिटिश सरकार ने लंदन में तीन गोल मेज सम्मेलनों का आयोजन किया।

सम्मेलन का आयोजन :

संवैधानिक प्रश्नों पर विचार-विमर्श के लिए पहला गोल मेज सम्मेलन 12 नवम्बर 1930 को आरंभ हुआ जो 19 जनवरी, 1931 तक चला। उस समय देश में सविनय अवज्ञा आंदोलन अपने चरम पर था। हज़ारों भारतवासी जेल जा रहे थे। भारत के स्वतंत्रता सेनानी लाठी या गोली खा रहे थे। लोग अपनी संपत्ति से वंचित हो रहे थे। ऐसे में बहु दलीय ब्रिटिश शिष्टमंडल के साथ संवैधानिक वार्ताएं करने के लिए उस सम्मेलन का गांधीजी और कांग्रेस ने बहिष्कार किया। अन्य राजनीतिक दलों और वर्गों के कुल 86 प्रतिनिधियों ने भाग लिया जिसमें इंग्लैण्ड के विभिन्न राजनीतिक दलों के तीन, 16 भारतीय देशी रियासतों के प्रतिनिधि और शेष 57 अन्य प्रतिनिधि थे होमी मोदी को छोड़कर व्यापारियों के किसी नेता ने भी भाग नहीं लिया। मुहम्मद अली, मुहम्मद शफ़ी, आग़ाख़ान, फ़ज़लुल-हक़, जिन्ना, फ़ज़्ले हुसैन आदि मुसलमान नेता बड़ी संख्या में उपस्थित थे। हिन्दू महासभा के नेता मुंजे और जयकर शामिल हुए। नरमदलीय नेता सर तेज बहादुर सप्रू, श्री निवास शास्त्री, और सी. वाई. चिंतामणि ने भी इस सम्मेलन में भाग लियाडा. भीमराव  अम्बेडकर भी इसमें भाग ले रहे थे राधाबाई सुब्बानारायण ने महिलाओं का प्रतिनिधित्व किया। रजवाड़ों का एक बड़ा जत्था भी मौजूद था। सिख, पारसी, जस्टिस पार्टी, मजदूर, भारतीय ईसाई, यूरोपीय, जमींदार, विश्वविद्यालय और भारत सरकार के प्रतिनिधि भी इस सम्मेलन में शामिल हुए जॉर्ज पंचम ने सम्मेलन का उद्घाटन किया और इसकी अध्यक्षता ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रैम्से मैकडोनाल्ड ने की

ब्रिटिश प्रधानमंत्री का प्रस्ताव :

प्रधानमंत्री मैकडोनाल्ड ने जिन प्रस्तावों की चर्चा की उसमें से प्रमुख थे केन्द्रीय व्यवस्थापिका सभा का निर्माण संघ शासन के आधार पर होगा और ब्रिटिश भारतीय प्रांत तथा देशी राज्य संघ शासन की इकाई का रूप धारण करेंगे और केंद्र में उत्तरदायी शासन की स्थापना होगी, किन्तु सुरक्षा और विदेश विभाग भारत के गवर्नर जनरल के अधीन होंगेब्रिटिश प्रधानमंत्री के प्रस्तावों के प्रति प्रतिनिधियों की भिन्न-भिन्न प्रतिक्रियाएं हुईं संघ शासन के सिद्धांत को सभी प्रतिनिधियों ने स्वीकार कर लिया देशी नरेशों के प्रतिनिधियों ने सहमति दी कि देशी रियासतों को शामिल करके एक भारतीय संघ बनाना चाहिए जिसमें संसदीय प्रणाली की सरकार हो प्रांतीय स्वतंत्रता के संबंध में भी विचारों में मतभेद नहीं था भारतीय प्रतिनिधियों ने इसका समर्थन किया। औपनिवेशिक हैसियत का सामूहिक दायित्व पर आधारित कार्यपालिका का एक मंत्री मंडलीय स्वरुप सम्मेलन को स्वीकार्य था। केवल सरंक्षण और उत्तरदायी मंत्रियों पर नियंत्रण के सबंध में पारस्परिक मतभेद पाया गया कुछ लोगों ने केन्द्र में आंशिक उत्तरदायित्व की जगह पूर्ण उत्तरदायित्व की माँग की जयकर और सप्रू ने भारत के लिए आपैनिवेशिक स्वराज की माँग की। डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने अलग निर्वाचक मंडल बनाए जाने की मांग प्रस्तुत की। जो भी लोग इस सम्मेलन में भाग लेने के लिए आए थे उनके सामने ब्रिटिशों द्वारा केन्द्र में किसी प्रकार के परिवर्तन का वादा करना आवश्यक हो गया था। ऐसी स्थिति में रजवाड़ों द्वारा एक संघीय विधायिका का प्रस्ताव आया जिसके बहुत से सदस्य राजाओं द्वारा मनोनीत हों और वह कार्यपालिका के प्रति उत्तरदायी हो। प्रधानमंत्री रैमजे मैकडोनल्ड ने इसे मानने की घोषणा कर दी। ऐसे समय में जब जन-आंदोलन के दबाव के कारण डोमिनियन स्टेटस मिलने का खतरा दिखाई दे रहा था, भारतीय राजा तो चाहते थे कि केन्द्र में कमज़ोर सरकार रहे, जिसमें उनकी उपस्थिति उसे लोकतांत्रिक बनाए रखने में सहायक होगी।

सम्मेलन असफल रहा

प्रथम गोलमेज सममेलन में साप्रंदायिकता की समस्या सर्वाधिक विवादपूर्ण रही मुसलमान भी केन्द्र में कमज़ोर सरकार चाहते थे। मुसलमान पृथक् तथा सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व के पक्ष में थे जिन्ना ने अपने 14 सूत्र को सामने रखा  ब्रिटिशों के लिए भी यह लाभप्रद प्रस्ताव था ताकि उत्तरदायी सरकार के मुखौटे के पीछे वास्तव में ब्रिटिश नियंत्रण बनाए रखा जा सकता। अंग्रेज़ों के पक्ष में एक और बात यह हुई कि सम्मेलन की अल्पसंख्यक समिति किसी समझौते पर पहुंचने में असफल रही। जिन्ना, शफ़ी और आग़ाख़ान उदारवादियों के सप्रू गुट के साथ समझौते की स्थिति तक लगभग पहुंच ही गए थे। इसका आधार संयुक्त निर्वाचक मंडल होते और मुसलमानों के लिए आरक्षित सीटें होतीं। लेकिन हिंदू महासभा ने पंजाब और बंगाल में मुसलमानों के आरक्षण का विरोध किया। उसपर से सिखों ने पंजाब में सिखों के लिए 30% प्रतिनिधित्व की मांग रख दी। इस तरह एकता का अवसर हाथ से जाता रहा। सम्मेलन असफल रहा। निराश जिन्ना ने कहा था कांग्रेस ने खुद को पूरी तरह गांधी के हाथों में सौंप दिया है। उसने भारत नहीं लौटने और लन्दन में ही वकालत करने की सोची।

उपसंहार

पहले गोल मेज सम्मेलन में आम तौर पर यह सहमति थी कि भारत को एक संघ के रूप में विकसित होना था, रक्षा और वित्त के संबंध में सुरक्षा उपाय होने थे, जबकि अन्य विभागों को स्थानांतरित किया जाना था। हालाकि उदारवादी प्रतिनिधियों ने गोलमेज सम्मेलन को भारत के लिए एक उपलब्धि बताया लेकिन सम्मेलन के सदस्यों में वर्गीय हितों को लेकर इतना अधिक मतभेद था कि सम्मेलन किसी सर्वमान्य नतीजे पर नहीं पहुँच सका फलतः इस सम्मेलन का कोई आशाजनक परिणाम नहीं निकल कर सामने आया उल्टे इससे भारत के विभिन्न वर्गों और संप्रदायों में मतभेद ही बढ़ा और सांप्रदायिकता के विकास में वृद्धि हुई। दिसंबर 1930 में मुस्लिम लीग ने इलाहाबाद के सम्मेलन में नागरिक अवज्ञा आन्दोलन का खुलकर विरोध किया। इस घटना ने लॉर्ड इरविन को यह कहने का मौक़ा दिया, क्योंकि गांधीजी उस वर्ग के हितों की बात नहीं करते, अतः कांग्रेस भारत के सभी वर्गों की प्रतिनिधि नहीं है। एक तरह से देखें तो यह सम्मेलन एकदम बेमानी था। मुहम्मद अली जिन्ना को छोड़कर कोई भी महत्त्वपूर्ण नेता ने इसमें भाग नहीं लिया था। हथियार डालते हुए 19 जनवरी, 1931 को सम्मेलन के समापन सत्र में ब्रिटिश प्रधान मंत्री रैमजे मैक्डोनल्ड ने अपने विदाई भाषण में यह आशा व्यक्त की कि कांग्रेस अपने प्रतिनिधि द्वितीय गोलमेज सम्मेलन के लिए ज़रूर भेजेगी। कम-से-कम यह तो एक उपलब्धि तो थी ही कि ब्रिटिश सरकार ने महसूस किया कि भारत में संवैधानिक सरकार के भविष्य पर किसी भी चर्चा में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की भागीदारी आवश्यक थी। इस प्रकार असफल प्रथम गोलमेज सम्मेलन 19 जनवरी, 1931 को अनिश्चित काल के लिए स्थगित हो गया सुभाष चन्द्र बोस ने इस गोलमेज सम्मलेन पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा था, इसने भारत को दो तीखी गोलियां दीं – अभिरक्षण और संघराज्य। गोलियों को खाने योग्य बनाने के लिए उन पर उत्तरदायित्व का मीठा मुलम्मा चढ़ा दिया गया। सप्रू जैसे उदारवादी नेताओं को केंद्र में उत्तरदायी सरकार होने की बात पसंद आई। शायद वे भांप नहीं पाए कि इसके माध्यम से ब्रिटिश उत्तरदायी सरकार के मुखौटे के पीछे वास्तव में ब्रिटिश नियंत्रण बनाए रखना चाहते थे। सम्मेलन के बाद गांधीजी सहित सभी भारतीय नेताओं को रिहा कर दिया गयाभारत लौटने पर तेजबहादुर सप्रू गांधीजी से मिले और उन्हें लॉर्ड इरविन से मिलने और बातचीत करने के लिए राज़ी कर लिया। गांधीजी ने वायसराय को पात्र लिखकर पूछा कि क्या बातचीत से मसले को नहीं सुलझाया जा सकता? वायसराय का जवाब सकारात्मक था। गाँधी-इरविन वार्ता हुई और उसके परिणामस्वरूप एक समझौता हुआ, जिसे गाँधी-इरविन समझौता कहा जाता है।

***  ***  ***

मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां-  राष्ट्रीय आन्दोलन

संदर्भ : यहाँ पर

रविवार, 18 मई 2025

329. राष्ट्रीय आन्दोलन - ‘बहु वर्गीय’ आन्दोलन

राष्ट्रीय आन्दोलन

329. राष्ट्रीय आन्दोलन - ‘बहु वर्गीय आन्दोलन



प्रवेश :

1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का उदय हुआ। उसके बाद के शुरुआती वर्षों में ब्रिटिश अधिकारी यह मानते थे कि ‘कांग्रेस एक अल्पसंख्यक वर्ग की प्रतिनिधि से अधिक कुछ नहीं है’। कैम्ब्रिज के विद्वान यह कहा करते थे कि ‘भारत जैसी कोई चीज़ न तो है, न कभी थी’। यह सही है कि 1880 के दशक में कांग्रेस समाज के अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त उच्च वर्गों और व्यावसायिक समूहों तक ही सीमित थी। उसके सदस्य राजभक्ति में विश्वास रखते थे। किसानों की न तो सुनी जाती थी, न कोई उनके बारे में सोचता था। लेकिन इसे सम्पूर्ण भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन का चरित्र मान कर देखा जाना बहुत बड़ी भूल होगी। बहुत से इतिहासकारों द्वारा अपने-अपने चश्मे से इतिहास लेखन के कारण ऐसी धारणा बनाई गई जो भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के सही चरित्र को सामने नहीं लाती। हाल के दिनों के अध्ययन से ‘नीचे से इतिहास को देखने की दृष्टि पर जोर दिया गया है। इसके परिणामस्वरूप औपनिवेशिक शोषण और उसके विरुद्ध किए जाने वाले संघर्ष का अधिक स्पष्ट रूप सामने आया है। नए अध्ययन यह साबित करते हैं कि नवजागरण की गतिविधियों के कारण आधुनिक राष्ट्रवाद का जन्म हुआ और देश में साम्राज्यवाद का विरोध अभिजातवादी के साथ-साथ लोकवादी (Populist), दोनों ही स्तरों पर हुआ। ।

राजवाड़े :

हालाकि ब्रिटिशों द्वारा रजवाड़ों का इस्तेमाल राष्ट्रवाद के विरुद्ध किया गया, लेकिन बाद के दिनों की प्रगति ने यह साबित किया कि वे भी राष्ट्रवाद की मुख्य धारा से जुड़ना चाहते थे। रजवाड़ों के मुद्दों को लेकर कांग्रेस हमेशा बचती आ रही थी। कांग्रेस रजवाड़ों के अलोकप्रिय शासन के खिलाफ हो रहे जन-आन्दोलन को खुला समर्थन देने से बचती रही। मिन्टो के समय से अंग्रेजी सरकार भारतीय रजवाड़ों से अपने संबंध मज़बूत करती आ रही थी। लेकिन 1920 के दशक में असहयोग आन्दोलन जब अपनी चरमोत्कर्ष पर पहुंचा तो अँग्रेज़ यह महसूस करने लगे कि कांग्रेस अधिक सबल और सक्षम हो गयी है और इसकी चुनौती के समक्ष देशी राजाओं से दोस्ती बढाने की उतनी ज़रुरत नहीं है। अंग्रेजी वायसराय नरेशों से दूरी बनाने लगे। नरेशों ने भी सरकार से यह मांग रखी कि उनकी सर्वोच्चता के दावों में कमी कर दी जाए। यह बात तब और भी स्पष्ट हो गई जब नेहरू रिपोर्ट में यह स्पष्ट कर दिया गया था कि सर्वोच्चता केंद्र को हस्तांतरित कर दी जाएगी। पीपुल्स कांफ्रेंस में भी इस बात की मांग की गई थी कि उत्तरदायी सरकार का नियम रजवाड़ों पर भी लागू किया जाए।

मुसलमानों, आदिवासियों और दलितों :

अंग्रेजी हुकूमत द्वारा मुसलमानों को हिन्दू-आधिपत्य का भय दिखाया गया फिर भी मुसलमानों का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा राष्ट्रवाद की मुख्य धारा से जुड़ा रहा। उपनिवेशवादियों ने फूट डालने के हर पैंतरे अपनाए। सुमित सरकार ने बताया है कि आंबेडकर के माध्यम से अभिव्यक्त होने वाले ‘अछूतों के जायज़ क्षोभ को राष्ट्रवादियों की स्वाधीनता प्राप्ति की दिशा में शीघ्र अग्रसर होने वाली मांगों के विरुद्ध प्रयुक्त किया गया। इसी तरह नागपुर में आदिवासी अलगाववाद को बढ़ावा दिया गयाभारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन ने ‘फूट डालो और राज करो के औपनिवेशिक प्रयासों को विफल करने का भरपूर प्रयास किया। हालाकि बाबा साहेब आम्बेडकर के आंदोलन को कांग्रेस ने आत्मसात तो नहीं किया, लेकिन गांधीजी ‘हरिजनों’ के बीच काम करते रहे। कल्याणकारी गतिविधियों के द्वारा कांग्रेस ने आदिवासियों का समर्थन प्राप्त किया। वन सत्याग्रह को सविनय अवज्ञा आन्दोलन का एक प्रमुख हिस्सा बनाया गया। जहां तक मुसलमानों के समर्थन का सवाल है तो, हम पाते हैं कि 1937 के चुनावों में 482 मुसलिम सीटों में से जिन्ना की लीग केवल 109 सीटें ही जीत सकी। मुस्लिम बहुमत वाले पंजाब और बंगाल में लीग की हार कांग्रेस से नहीं बल्कि मुस्लिम प्रधान प्रादेशिक दलों कृषक प्रजा पार्टी और यूनियनिस्ट पार्टी से हुई थी।

किसानों, काश्तकारों और श्रमिकों :

कांग्रेस ने राजस्व, सिंचाई शुल्क, लगान और क़र्ज़ के बोझ में कमी, बेदखल की गयी भूमि की वापसी और ज़मींदारी उन्मूलन के मुद्दों को अपने संघर्ष में शामिल कर भूमिधर किसानों और छोटी जोत वाले काश्तकारों को अपने साथ लिया। कृषि सुधारों के लिए किए जाने वाले कृषक आन्दोलनों ने राष्ट्रीय आन्दोलन को मज़बूती प्रदान की। अनेक कृषक नेताओं ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन के आरंभ से पहले तक कांग्रेस के लिए एक दृढ़ किसान आधार बना दिया था। श्रमिकों ने जगह-जगह हड़ताल किए। श्रमिकों को राष्ट्रवादी समर्थन मिला। मज़दूरों ने भी पूर्ण स्वराज की मांग का प्रस्ताव स्वीकार किया। प्रमुख राष्ट्रवादी नेता सुभाष चन्द्र बोस ने श्रमिक आन्दोलन में रूचि दिखाई। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने एक श्रमिक अनुसंधान विभाग की स्थापना की।

व्यापारिक वर्ग :

श्रमिकों द्वारा बार-बार किए जा रहे हड़ताल और संघर्ष ने भारतीय व्यापारिक वर्ग को सरकारी समर्थन को प्राप्त करने के लिए विवश कर दिया था। फिर भी वे ब्रिटिश नीतियों को लेकर असंतुष्ट थे। बहिष्कार और स्वदेशी के कार्यक्रमों ने स्थानीय उद्योगों और उद्योगपतियों को अपना व्यापार बढाने में मदद पहुंचाई। 1930 के दशक में भारतीय उद्योगपतियों द्वारा चलाए जा रहे चीनी, सीमेंट, कागज़ और इस्पात उद्योगों में तेज़ी से बढोत्तरी हुई और उसे ब्रिटिश संरक्षण की ज़रुरत नहीं रही। उद्योगपतियों ने राष्ट्रीय आन्दोलन से हाथ मिलाया और हर तरह से इसकी मदद की।

छात्र, युवक और स्त्रियाँ :

असहयोग आन्दोलन के दौरान और उसके बाद भी छात्र और युवक राष्ट्रीय आन्दोलन में बड़ी संख्या में भाग लेते रहे। युवाओं ने पूर्ण स्वाधीनता और सामाजिक-आर्थिक क्षेत्रों में आमूल परिवर्तन की मांग को प्रमुखता दी। कांग्रेस ने हिन्दुस्तानी सेवा दल के माध्यम से युवकों को संगठित किया। सुभाष चन्द्र बोस और जवाहरलाल नेहरू युवा नेता के रूप में काफी प्रसिद्ध हुए। इन दोनों ने ‘इंडिपेंडेंस फॉर इंडिया लीग की स्थापना की। भगत सिंह, यतीन्द्रनाथ, अजय घोष और फनीन्द्रनाथ घोष ने ‘हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र संघ’ की स्थापना की। युवाओं ने पूर्ण स्वाधीनता और सामाजिक-आर्थिक क्षेत्रों में आमूल परिवर्तन की मांग को प्रमुखता दी। इन युवा स्वतन्त्रता सेनानियों ने क्रान्तिकारी गतिविधियों को राष्ट्रीय आन्दोलन में समावेश किया। वे समाज का पूर्ण परिवर्तन करना चाहते थे। असहयोग और सविनय अवज्ञा के राष्ट्रीय आन्दोलनों में स्त्रियों का सम्मिलित होना भारतीय स्त्रियों की मुक्ति की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण क़दम था। भारतीय घरेलू महिलाएं राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रही थीं।

उपसंहार :

गांधीजी के राष्ट्रीय आन्दोलन से जुड़ने और उसको नेतृत्व प्रदान करने के बाद उसकी अभिजात और बुद्धिजीवी वर्गीय सीमा टूटी। गांधीजी ने कांग्रेस के विधान में परिवर्तन कर लोगों का विश्वास जीता और चौअनिया सदस्यता के द्वारा आम लोगों तक इसकी पहुंच बनाई। देखते-ही-देखते कांग्रेस आम जनता का सबसे बड़ा संगठन बन गई। इसके सदस्यों में किसान, काश्तकारों और मज़दूरों का समावेश हुआ। भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन का न सिर्फ भौगोलिक बल्कि सामाजिक विस्तार भी हुआ। अब न सिर्फ शहरी बुद्धिजीवी बल्कि छोटे शहरों के निम्न-मध्य वर्गों, ग्रामीण किसान वर्ग के बड़े भागों और छोटे-बड़े शहरों के प्रभावशाली बुर्जुवा समूहों तक इसका फैलाव हुआ। गांधीजी ने 1920 के दशक में जब एक अखिल-भारतीय आन्दोलन की बुनियाद रखी तो उसके मुद्दे भू-राजस्व, नमक कर, आवकारी और वनों संबंधी अधिकार भी समाहित किए हुए थे। 1930 के दशक में ट्रेड यूनियनों, किसान सभाओं, छात्र संगठनों, कांग्रेसी समाजवादियों और कम्युनिस्टों के माध्यम से भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन को विभिन्न वर्गों का समर्थन मिला। स्वदेशी और बहिष्कार आन्दोलन में देश के लगभग सभी वर्गों ने भाग लिया। खादी, चरखा, कताई जैसे रचनात्मक ग्रामोत्थान कार्यक्रम से निम्न वर्गों का इससे जुडाव हुआ। क्रांतिकारी आन्दोलनकारियों के रूप में युवा वर्ग आगे आए। हड़तालों के द्वारा मज़दूर वर्ग इसका हिस्सा बने। स्त्रियों सहित जन-सामान्य का सक्रिय राजनीति में प्रवेश हुआ। जब गांधीजी के चमत्कारिक नेतृत्व में राष्ट्रीय आन्दोलन आगे बढ़ा, तो जनता की भागीदारी बहुत प्रभावपूर्ण हुई। शिक्षित युवकों, कामगारों, किसानों, उद्योगपतियों, स्त्रियों, नौकरीपेशा, बेरोज़गार, सेना, वकीलों, बुद्धिजीवियों, छोटे और मझोले ज़मींदार, काश्तकार, खेतिहर मज़दूर, शहरी और ग्रामीण आम जनता का साम्राज्यवादी विरोधी आन्दोलन से जुडाव इस बात को साबित करता है कि भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन ‘बहु वर्गीय आन्दोलन था, जिसमें सभी वर्गों तथा स्तरों के साम्राज्यवादी हितों का प्रतिनिधित्व था

***  ***  ***

मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां-  राष्ट्रीय आन्दोलन

संदर्भ : यहाँ पर