गुरुवार, 6 मार्च 2025

306. भंसाली की कथा

 306. भंसाली की कथा



आचार्य भंसाली अहमदाबाद के कॉलेज में प्राध्यापक रह चुके थे। वे गांधी जी के बरसों से क़रीबी सहयोगी थे। गांधी जी उनकी तापसिक मान्यताओं और उन पर अमल करने की उनकी दृढ़ता का बहुत सम्मान करते थे। अनशन करने में उनका कोई मुकाबला नहीं था। पहली बार जब उन्होंने अनशन किया, तो वह 40 दिनों का था। दूसरी बार 55 दिनों का और तीसरी बार 63 दिनों का। आष्टी-चिमूर के अत्याचारों के निषेध में किया गया 63 दिनों का यह का अनशन तो देश-विख्यात अनशन था। आष्टी-चिमूर में स्त्रियों पर पुलिस ने अत्याचार किया था। उसकी करुण कहानी सुनकर आचार्य भंसाली का हृदय व्यथित हो उठा और उसके विरोध में उन्होंने अनशन किया। भारत के इतिहास में इस अनशन की एक अमर कहानी बन गई। इस अनशन के दौरान भंसाली ने शुरू के पन्द्रह दिन पदयात्रा की थी और पानी पीना भी छोड़ दिया था। आखिर के 48 दिन वे बिस्तर पर थे। वह दौर 1942 के ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन का दौर था। सरकार ने आन्दोलन में जनता को बेरहमी से कुचला था। लेकिन भंसाली के इस अनशन ने जनता में एक अलग ही चेतना पैदा की थी। उस समय रेल की पटरी उखाड़ने, तार काटने, डाक के डिब्बे जलाने के कार्यकमों का जवाब तो सरकार के पास था, लेकिन एक विशुद्ध नैतिक प्रश्न को लेकर एक संत ने जो अनशन किया था उसका जवाब उस निष्ठुर सरकार के पास कुछ नहीं था। हारकर सरकार ने उस अत्याचार की जांच करना स्वीकार कर लिया था। इस भारत की नारीत्व की मर्यादा का रक्षण हुआ।

एक दिन वे हिमालय की यात्रा पर निकल चुके। आश्रम से हिमालय तक अपनी यात्रा में भंसाली ने बारह साल तक मौन व्रत रखने का संकल्प ले लिया था। वे अपने किसी पाप का प्रायश्चित करना चाहते थे। हिमालय से वापस आते समय एक रात, वे मैदानी इलाके में एक गांव में मवेशी के बाड़े में सो रहे थे कि अचानक किसी पशु की आहट पर जाग गए। उनके मुंह से अनायास निकला, “कौन है?” उन्हें फ़ौरन ही अहसास हुआ कि उनका मौन व्रत तो भंग हो गया। आगे ऐसा न हो, यानी नींद में मौन न टूटे, इसके लिए उन्होंने एक सुनार को राज़ी किया कि वह उनके होठों को तांबे के तार से सिल दे ताकि नींद में भी व्रत न टूटे। उस दौरान वे आटा और नीम के पत्तियों का पानी में घोल बनाकर पीते थे। यही उनका आहार था। सुनार ने तांबे की एक नली भी उन्हें दी थी जिसे मुंह के एक छोर में घुसाकर वे वह घोल पिया करते थे।

महीनों से उन्होंने बाल नहीं बनवाया था। दाढ़ी-मूंछ भी काफ़ी बढ़ी हुई थी। फिर भी जब वे आश्रम पहुंचे तो लोगों ने उन्हें पहचान लिया।भंसाली भाई आ गए!” जंगल की आग की तरह यह खबर पूरे आश्रम में फैल गई। जब वे बापू के कमरे तक पहुंचे उनके पीछे दर्जनों आश्रमवासी थे। बापू किसी बीमार आश्रमवासी को देखने गए थे। सब लोग बापू की प्रतीक्षा करने लगे। जब बापू लौटे तो भंसाली को देखते ही उनका चेहरा खिल उठा। दोनों दोस्त गले मिले। संयोग से वह दिन बापू के मौन का दिन था। बापू लगातार मुस्कुरा रहे थे। सिर हिला रहे थे।

अगले दिन बापू ने भंसाली के होंठों को सीने वाला तार निकाल देने का आदेश दिया। भंसाली बाबा ने तार कटवा लिए। बाद में बहस करके गांधीजी ने मौन व्रत में से भगवान के नामोच्चारण करने की छूट पर उन्हें राज़ी करवाया। वे फौरन तो उन्हें मौन व्रत तोड़ने के लिए राज़ी नहीं कर पाए। जब दोनों में चर्चा होती बापू बोलते जाते और भंसाली बापू से लिख कर संवाद करते थे। धीरे-धीरे बापू ने उन्हें चर्चा के समय मौन छोड़ने का आग्रह किया। अंततः भंसाली केवल बापू से बातचीत शुरू करने पर राज़ी हुए। कुछ दिनों के बाद आश्रम के बच्चों को पढ़ाने के लिए भी मौन छोड़ने पर गांधीजी ने उन्हें मना लिया। वे आश्रम के बच्चों को पढ़ाने लगे। वे गांधीजी की कोई बात नहीं काटते थे। लेकिन एक बार उनके बीच मतभेद उभर आया। आश्रम की एक बहन की एक छोटी-सी भूल के कारण गांधीजी ने उसे आश्रम छोड़कर चले जाने को कहा था। वह विधवा थी। उसने भंसाली बाबा से अपना दुखड़ा सुनाया कि वह कहां जाए? भंसाली बाबा को लगा कि गांधीजी के हाथों अन्याय हो रहा है। उन्होंने गांधीजी से कहा, “आपने इस बहन को आश्रम छोड़ने का आदेश दिया है, तो मैं भी आश्रम छोड़कर चला। गांधीजी को अपना निर्णय वापस लेना पड़ा। दुर्बल और पीड़ितों के लिए भंसाली बाबा का हृदय बहुत संवेदनशील था। ग़रीबों के साथ अन्याय होता वे देख नहीं सकते थे।

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मनोज कुमार

 

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संदर्भ : यहाँ पर

 

बुधवार, 5 मार्च 2025

305. बापू का उपवास

 305. बापू का उपवास



1925

दिसम्बर 1925 की बात है। एक दिन बापू काफ़ी उदास और ग़मगीन नज़र आ रहे थे। आश्रम के लोग मुंह लटकाए घूमते नज़र आए। कमरे में फुसफुहाट में बातें हो रही थीं। मगनलाल भाई, सुरेन्द्र भाई और दो अन्य वरिष्ठ आश्रमवासी सुबह-सुबह बापू की कुटिया में जा रहे थे। लम्बी बातचीत के बाद वे बाहर निकले तो काफ़ी गम्भीर दिखे। शाम की सभा में बापू ने गंभीर और नपी-तुली आवाज़ में कहना शुरु किया, मैंने कल से एक सप्ताह का उपवास का निर्णय लिया है! आश्रम में जो कुछ हुआ उसके कारण मुझे ऐसा करना पड़ रहा है। तीन लड़के गंदी हरकत करते पाए गए हैं, उनके इस दुराचरण के लिए प्रायश्चित स्वरूप मैं उपवास करने जा रहा हूं।

जब मीरा ने पूछा, आखिर आपको उपवास क्यों करना पड़ रहा है? तो बापू फट पड़े, तुम्हें पता भी है कि क्या हुआ है? तीन लड़के समलैंगिक क्रिया करते पाए गए। यह इस आश्रम में हुआ है। देश भर के लोग इस उम्मीद में इस आश्रम के लिए दान भेजते हैं कि मैं यहां एक नए आदमी का निर्माण में लगा हूं। उन लड़कों का चरित्र मेरे लिए एक पवित्र थाती है।

मीरा ने कहा, तो इसके लिए आप उपवास करने जा रहे हैं। अपने स्वास्थ्य, अपने जीवन को खतरे में डालने जा रहे हैं।

बापू ने दुखी स्वर में कहा, मैं क्या कर सकता हूं? उन्हें दंडित करने का तो कोई सवाल ही नहीं उठता। उनके शिक्षक के रूप में मुझे उनके विचारों और इच्छाओं में प्रवेश करना चाहिए। उनकी अशुद्धता मिटाना चाहिए। बच्चों को आन्तरिक शुद्धता के बारे में सबसे पहले बताया जाना चाहिए। यह पहला और सबसे महत्वपूर्ण पाठ यदि वे सीख लें तो बाक़ी सभी चीज़ें आ जाएंगी। मैं उपवास करके खुद को दंडित करूंगा ताकि ये लड़के अपने भीतर झांकें। उन्हें अपनी ग़लतियों का अहसास होगा। उन्हें समझ में आएगा कि जीवन की छोटी-छोटी चीज़ों में शुद्धता और सच्चाई ही चरित्र निर्माण की एकमात्र कुंजी है।

आश्वस्त न होते हुए मीरा ने पूछा, लेकिन उपवास ही क्यों?

बापू ने बताया, एक स्थिर, छोटी सी आन्तरिक आवाज़ मुझे कहती है कि उन लड़कों में जो अशुद्धता है वह मेरे भीतर भी है। उसे मुझे उपवास के ज़रिए शुद्ध करना चाहिए। अगर मैंने अपनी आन्तरिक आवाज़ को दबाने की कोशिश की तो मैं अपनी सारी उपयोगिता खो दूंगा।

उपवास के पहले तीन दिन तो बापू चल कर प्रार्थना स्थल पर जाते रहे। तीसरे दिन चलने के लिए उन्हें सहारे की ज़रूरत पड़ी। बाक़ी चार दिन उन्हें खाट पर बैठा कर वहां तक ले जाना पड़ा। सातों दिन नमक और सोडा बाइकार्बोनेट मिलाकर खूब पानी का घूंट ले लिया करते। सप्ताह होते-होते उनका वजन सात पाउंड घट गया। सातवें दिन उन्होंने अंगूर के रस में मिला नारंगी का शरबत और नारंगी के फांक खाकर उपवास तोड़ा। बाद में, दिन में उन्होंने बकरी के दूध में पानी मिलाकर पिया। बारह दिनों तक उन्होंने ठोस खाद्य नहीं लिया।

आश्रम से क़रीब डेढ़ मील दूर साबरमती जेल तक की प्रातः और सायंकालीन तेज चहलकदमी का सिलसिला फिर शुरू कर दिया। पहली सुबह बापू ने उन दो लड़को को साथ लिया, जो समलैंगिक यौनाचार करते पाए गए थे। वे उनकी लाठी बने। बापू ने अपने हाथ उनके कंधों पर रखा हुआ था। वे काफ़ी उत्साहित लग रहे थे। पूरे रास्ते वे हंसते और मज़ाक़ कर रहे थे। अंतिम पचास गज बच गए तो बापू ने अपने पैर ज़मीन से उठा लिए और अपना पूरा भार उन लड़कों के कंधों पर डाल दिए और चिल्लाए, “चलो हम देखते हैं कि तुम लोग कितनी तेजी से दौड़ सकते हो।

दोनों लड़के बापू को उठा कर जेल के दरवाज़े की ओर दौड़ चले।

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मनोज कुमार

 

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संदर्भ : यहाँ पर