रविवार, 4 मई 2025

327. धरसाना पर हमला

राष्ट्रीय आन्दोलन

327. धरसाना पर हमला



1930

प्रवेश :

दिसम्बर 1929, लाहौर कांग्रेस में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने सम्पूर्ण स्वराज्य को अपना प्राथमिक लक्ष्य घोषित किया था। यह तय किया गया कि स्वाधीनता संग्राम की अगली रणनीति और उसे शुरू करने के समय का फैसला अब गांधीजी लेंगे। गांधीजी ने स्पष्ट शब्दों में अपना इरादा ज़ाहिर किया, अगर वातावरण अहिंसात्मक रहा, तो सविनय अवज्ञा आंदोलन को शुरू करने को मैं तैयार हूं। अहिंसा के लिए गांधीजी के हृदय में एक जबर्दस्त सच्चाई और लगन थी। देश की स्थिति सुधारने के लिए गांधीजी अहिंसा को एकमात्र ठीक तरीक़ा मानते थे। वे मानते थे कि इसका उचित रूप से पालन किया जाए तो यह अचूक तरीक़ा साबित होगा। हिंसा को किसी भी रूप में आंदोलन का अंग बनने देना उन्हें पसंद नहीं था। 26 जनवरी 1930 को देश को स्वतंत्र कराने के लिए पूरे देश में गांधीजी द्वारा लिखित यह प्रतिज्ञा ली गईग़ुलामी सहन करना ईश्वर और देश के प्रति द्रोह है। हम प्रण करते हैं कि जब तक पूर्ण स्वराज्य नहीं मिलेगा, तब तक हम इस अधम सत्ता का अहिंसक असहयोग करेंगे और क़ानून का सविनय भंग करेंगे। स्वतंत्रता संग्राम का आधार बनाकर उन्होंने नमक-क़ानून तोड़कर आन्दोलन शुरु करने का प्रस्ताव रखा। उन्होंने लोगों को समझाया कि सरकार सारी निष्ठुरता का उपयोग करेगी। वह हमें कुचल देना चाहेगी। लेकिन हमें अहिंसा और विनय का मार्ग नहीं छोड़ना है। गांधीजी ने वायसराय लॉर्ड इरविन को पत्र लिखकर बता दिया कि वे ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ सत्याग्रह करेंगे, पर अहिंसक ढंग से।

नमक सत्याग्रह - सविनय अवज्ञा आन्दोलन

10 मार्च 1930 को साबरमती आश्रम में गांधीजी ने ऐलान कर दिया, 12 मार्च को प्रातः काल नमक सत्याग्रह आन्दोलन शुरू हो जाएगा। उन्होंने सत्याग्रहियों से आग्रह किया कि वे आगे आएं और नमक क़ानून का सविनय अवज्ञा करें। इसके ख़िलाफ़ सरकार क्या कर सकती है? बहुत ही क्रूर और निरंकुश तानाशाह भी शान्तिपूर्ण ढंग से विरोध करने वालों के समूहों को तोप के मुंह पर नहीं रख सकता। यदि सत्याग्रही केवल अपने को थोड़ा सक्रिय कर लें, तो उन्होंने विश्वास दिलाया कि वे बहुत ही थोड़े समय में इस सरकार को थका देंगे।

नमक सत्याग्रह सविनय अवज्ञा आन्दोलन था। दांडी कूच के पहले गांधीजी ने लोगों को सत्याग्रही होने का मतलब समझाया। एक सत्याग्रही सब मनुष्यों को अपना भाई मानता है। उसे यह विश्वास होता है कि प्रेम और आत्म पीड़न से उसके प्रतिपक्षी के हृदय में भी परिवर्तन अवश्य होगा। सत्याग्रही को यह पूर्ण विश्वास होता है कि प्रेम की शक्ति इतनी महान है कि वह कड़े से कड़े पत्थर दिल को भी पिघला देती है। सत्याग्रह शांति का मार्ग है। यह मार्ग किसी के दिल में वैसी कड़वाहट उत्पन्न नहीं करता, जैसी कि हिंसा। कायरता और प्रेम साथ-साथ नहीं रहते। एक सत्याग्रही में इतना साहस और प्रेम होना होना चाहिए कि वह हिंसा का सामना कर सके और फिर भी अपने प्रतिपक्षी से प्रेम करे और उसके हृदय-परिवर्तन का प्रयत्न करे। सत्याग्रही का भय रहित होना और सत्य में अटल विश्वास उसको इतना साहस देता है कि चाहे उसके रास्ते में कितनी ही बाधाएं क्यों न हों, वह किसी भी बुराई के खिलाफ हुंकार भर सकता है। सत्याग्रही अपने प्रतिपक्षी की सामान्य समझ एवं नैतिकता को शब्दों, पवित्रता, विनय, ईमानदारी और आत्म पीड़न द्वारा प्रभावित करता है। सत्याग्रही के ध्येय और साधन दोनों में ही पवित्रता होनी चाहिए। सत्याग्रहियों के लिए गांधीजी ने नियम बनाए,

1.   सत्याग्रही प्रतिपक्षी के प्रति गुस्सा नहीं करेगा,

2.  वह प्रतिपक्षी के गुस्से का सामना अहिंसा से करेगा।

3.  प्रतिपक्षी के हमले को सहेगा और पलटकर हमला नहीं करेगा,

4.  जब कोई अधिकारी उसे गिरफ़्तार करना चाहेगा, तो वह गिरफ़्तार हो जाएगा,

5.  अपने प्रतिपक्षी का अपमान नहीं करेगा,

6.  यूनियन जैक को सलाम नहीं करेगा और न ही उसका अपमान करेगा, और

7.  आन्दोलन के दौरान यदि कोई अन्य व्यक्ति किसी सरकारी अधिकारी का अपमान या उस पर हमला करता है, तो सत्याग्रही को उसे बचाना होगा।

जेल भेजे गए सत्याग्रहियों के लिए भी गांधीजी ने आचार संहिता बनाई।

1.   जेल के अधिकारियों के साथ शिष्ट व्यवहार करेगा,

2.  जेल के अनुशासन को मानेगा,

3.  अन्य साधारण क़ैदियों से स्वयं को ऊंचा नहीं समझेगा,

4.  अपने प्रति विशेष बर्ताव की मांग नहीं करेगा,

5.  जेल का भोजन खाना होगा,

6.  यदि भोजन गन्दे बर्तनों में और गाली-गलौज के साथ दिया जाए, तो खाने से मना कर देगा।

उन्होंने लोगों को यह भी समझाया कि सत्याग्रह का जो तरीका अपनाया जा सकता था, वह था उपवास, अहिंसा, धरना, असहयोग, सविनय अवज्ञा और क़ानूनी दण्ड। इस प्रकार अहिंसक आंदोलन के साथ देश में अंग्रेज़ी शासन के ख़िलाफ़ सविनय अवज्ञा आंदोलन के रूप में 12 मार्च, 1930 को नमक यात्रा शुरु हु थी 241 मील की यात्रा का अंत 5 अप्रैल, 1930 को हुआ। 6 अप्रैल को गांधीजी ने समुद्र के जल से नमक बना कर नमक कानून को तोड़ा। उपस्थित जनसमुदाय ने भी समुद्र से नमक बनाया। गांधीजी ने घोषणा की, नमक क़ानून को अब औपचारिक रूप से भंग कर दिया गया है। अब यह उन सभी के लिए खुला है, जो नमक बनाकर, नमक क़ानून के अभियोजन को स्वीकार करने के लिए सहर्ष प्रस्तुत हों। सारा देश उस हुक़ूमत के ख़िलाफ़ उठ खड़ा हुआ, जिसे गांधीजी ने ‘गुंडा राज’ कहा था। लाखों लोगों ने नमक क़ानून को तोड़ा। इसकी वजह से हजारों भारतीय कुछ महीने के अंदर गिरफ़्तार किए गए। इससे एक चिंगारी भड़की जो सविनय अवज्ञा आंदोलन में बदल गई।

उसी दोपहर में गांधीजी ने एक जनसभा को संबोधित करते हुए कहा कि उन्हें आशंका थी कि उन्हें गिरफ़्तार कर लिया जाएगा। अब भी उन्हें गिरफ़्तारी की पूरी उम्मीद है। लेकिन यह संघर्ष इतना बड़ा है कि उनकी गिरफ़्तारी से रुक नहीं सकता। सविनय अवज्ञा आंदोलन नमक क़ानून तोड़ने के अलावा दूसरे रूपों में भी फैलेगा। उन्होंने यह भी घोषित किय़ा कि वे सबरमती आश्रम तब तक नहीं लौटेंगे जब तक कि देश को आज़ादी नहीं मिल जाती। दांडी में नमक-क़ानून भंग किए जाने के बाद सभी कांग्रेसी संस्थाओं को ऐसा ही करने और अपने-अपने क्षेत्र में सविनय अवज्ञा आरंभ करने की अनुमति दे दी गई थी। सारे देश में अद्भुत उत्साह का संचार हो चुका था। पूरे देश में शहर-शहर, गांव-गांव में नमक बनाने की चर्चा ज़ोर पकड़ चुकी थी। नमक तैयार करने के एक-से-एक तरीक़े काम में लाए जाने लगे थे। लोग बर्तन-कड़ाहे इकट्ठा करते, नमक तैयार करते और विजय के उन्माद में उसे लेकर घूमते, उसकी नीलामी करते। बड़ी-बड़ी बोली लगती, लोग नमक ख़रीदते। जनता का अगाध उत्साह देखने लायक था। जहां नमक बनाने की सुविधा नहीं थी, वहां ‘ग़ैरक़ानूनी’ नमक बेचकर कानून तोड़ा गया। हर कहीं नमक गोदामों पर धावा बोला गया तथा अवैध नमक के निर्माण का काम हाथों में लिया गया। पुलिस की पाशविकता और दमन के बावजूद लोगों का उत्साह तनिक भी कम नहीं हुआ। सत्याग्रही के हाथों में आकर नमक राष्ट्रीय स्वाभिमान का प्रतीक बन गया था। सरकार ने दमन का रास्ता अपनाया31 मार्च तक 35,000 से अधिक लोग गिरफ़्तार कर लिए गए थे। पुलिस ने कई जगह गोलियां भी चलाई। पूरे देश में अग्रेज़ी हुक़ूमत ने नृशंसता का नंगा नाच किया। गांधीजी ने लोगों से अंग्रेज़ों के दमन का जवाब संयम से देने के लिए कहा। गांधीजी ने अपने संदेश में कहा, वर्तमान में भारत का स्वाभिमान सत्याग्रहियों के हाथों में मुट्ठीभर नमक के रूप  में प्रतीकमय हो गया है। पहले हम इसे धारण करें, फिर तोड़ें लेकिन नमक का कोई स्वैच्छिक समर्पण न हो। लोगों ने विदेशी कपड़े और अन्य चीज़ों का भी बहिष्कार करना शुरू कर दिया। शराब की दुकानों पर धरना दिया जाता। लोगों की गिरफ़्तारियां होती रही

नमक सत्याग्रह के सिलसिले में लगभग 60,000 लोगों को गिरफ़्तार किया गया। गिरफ़्तार होने वालों में गाँधी जी भी थे। गिरफ्तार होने से पहले उन्होंने 4 मई की रात को वायसराय को पत्र लिखा, सत्याग्रह के सिद्धान्त के अनुसार सरकार जितना दमन और ग़ैरक़ानूनी काम करेगी उतना ही हम दुख और पीड़ा उठाएंगे। स्वेच्छा से सही गई पीड़ा की सफलता निश्चित है। हिंसा अहिंसा से ही जीती जा सकती है। आपसे विनती है कि नमक कर ख़त्म कर दें। एक पत्रकार ने गांधीजी से पूछा, क्या आपकी गिरफ़्तारी से पूरे देश में झगड़े-फसाद होंगे? गांधीजी ने कहा, नहीं, मुझे ऐसी आशंका नहीं है। गांधीजी 5 मई को गिरफ्तार कर लिए गए। गिरफ्तारी के ठीक पहले उन्होंने अहिंसात्मक विद्रोह की दूसरी और पहले से अधिक उग्र योजना बनाई थी। यह थी, धरसाना साल्ट वर्क्स, एक सरकारी नमक डिपो, पर धावा बोलना और उस पर कब्जा करना। सरकार डरी हुई थी। उसने गांधीजी की गिरफ़्तारी के बाद पूरी तरह से शांत सत्याग्रहियों पर भी नृशंस अत्याचार करना शुरू कर दिया था। गांधीजी की गिरफ़्तारी और नज़रबंदी के बाद पूरे देश में व्यापक रूप से हड़ताल व बंद का आयोजन किया गया, लेकिन लोग अहिंसा पर क़ायम रहे। बंबई में लगभग 50,000 मिल मज़दूरों ने काम करने से इंकार कर दिया। रेलवे कामगारों ने भी आंदोलन में हिस्सा लिया। सरकारी सेवाओं से त्यागपत्र देने का सिलसिला चल पड़ा। कलकत्ता में पुलिस ने भीड़ पर गोली चलाई। अनेक लोगों को गिरफ़्तार किया। पेशावर में सैनिक नाके बंदी कर दी गई। उत्तर-पश्चिम सीमान्त प्रान्त में सेना, विमान, टैंक व गोला-बारूदों का जमकर उपयोग किया गया। आन्दोलन के फैलने से ब्रिटिश हुकूमत परेशान थी। कुछ ही दिनों में लाखों लोगों को जेल में ठूंस दिया गया। सत्याग्रहियों पर सिपाही टूट पड़ते। उनकी ज़बर्दस्त पिटाई की जाती। सिपाहियों की क्रूरता बढ़ती ही जा रही थी। लेकिन लोगों ने गांधीजी द्वारा दी गई अहिंसा का पाठ हमेशा याद रखा। कई जगहों पर अहिंसक भीड़ पर पुलिस ने गोलियां भी बरसाईं। भीड़ में महिला और बच्चे भी होते थे। लेकिन लोग न तो भागते और न ही हिंसा पर उतारू होते। जब अगली पंक्ति के लोग गोली खाकर गिर पड़ते तो पिछले लोग गोलियों का सामना करने के लिए आगे आ जाते। लाशों की ढेर में किसी भी सत्याग्रही की पीठ पर गोली नहीं लगी होती।

धरसाना पर हमला

गांधीजी की गिरफ्तारी के बाद बड़ौदा के पूर्व-न्यायविद अब्बास तैयबजी ने गांधीजी के उत्तराधिकारी के रूप में सत्याग्रह का काम संभाला। वे धरसाना के नमक कारखाने तक पहुंचने के लिए तैयार बैठे थे। 12 मई को कार्यकर्त्ताओं ने यात्रा कार्यक्रम बनाया। अब्बास तैयबजी करडी से रेड का नेतृत्व करने के लिए चले ही थे कि सूरत के ज़िला मजिस्ट्रेट और पुलिस सुपरिन्टेण्डेण्ट ने तैयबजी और अन्य सत्याग्रहियों को गिरफ़्तार कर लिया।

तैयबजी के बाद सरोजिनी नायडू उनकी उत्तराधिकारिणी बनीं। जब तैयबजी गिरफ़्तार हुए उस समय सरोजिनी नायडू इलाहाबाद में कांग्रेस कार्यकारिणी समिति की बैठक में भाग ले रही थीं। अब्बास तैयबजी के गिरफ़्तार होने की सूचना मिलते ही, वह धरसाना के लिए निकल पड़ीं। 15 मई को वह 50 स्वयंसेवकों के साथ डिपो की ओर रवाना हुईं। पुलिस ने उन्हें बीच रास्ते में ही रोक दिया। वह धरने पर बैठ गईं। पुलिस ने बलप्रयोग से उन्हें हटा दिया। स्वयंसेवकों को गिरफ़्तार कर लिया गया। 21 मई को 3000 स्वयंसेवकों ने सरोजिनी नायडू व साबरमती आश्रम के वयोवृद्ध नेता इमाम साहेब के नेतृत्व में धरसाना डिपो पर हमला किया। कूच करने से पहले कवयित्री सरोजिनी नायडू ने स्वयंसेवकों को प्रार्थना कराई और गांधीजी की शिक्षा पर दृढ़ता से अमल करने और अहिंसा पर दृढ़ रहने का आग्रह किया। 21 मई के सरोजिनी नायडू के धरसाना पर धावा करने के प्रयत्न का विस्तृत विवरण ‘न्यूफ़्रीमैन’ का अमरीकी संवाददाता वेब मिलर ने किया है, जो घटनास्थल पर बड़ी कठिनाई से पहुँच पाया था। यात्रा शुरू होने के पहले श्रीमती नायडू ने उद्बोधन करते हुए कहा,  गांधीजी शारीरिक रूप से जेल में हैं पर उनकी आत्मा हमारे साथ है, भारत का मान आपके हाथों में है, आपको किसी भी परिस्थिति में हिंसा का प्रयोग नहीं करना है आपको पीटा जाए तब भी आप विरोध नहीं करें; अपने ऊपर पड़ने वाले वार को रोकने के लिए हाथ नहीं उठाना है

स्वयंसेवकों ने शांतिपूर्वक आधे मील की नमक भण्डार की यात्रा पूरी की डिपो के चारों तरफ कांटेदार तार लगा दिए गए थे और खाई खोद दी गई थी, जिसमें पानी भर दिया गया था। आधा दर्जन अधिकारियों के अधीन 400 सिपाही तैनात थे। कंटीले तार के अन्दर 25 बंदूकधारी जवान खड़े थे। धारा 144 लागू था। गांधीजी के पुत्र मणिलाल के पीछे जैसे ही स्वयंसेवकों का पहला जत्था आगे बढ़ा, पुलिस अधिकारियों ने उन्हें दूर हट जाने की आज्ञा दी। स्वयंसेवक चुपचाप आगे बढ़े। पुलिस के सैकड़ों जवान उन पर टूट पड़े और डंडे बरसाने लगे। वेब मिलर ने उस नृशंस लाठीचार्ज का आंखों देखा वर्णन इस तरह किया थाः अठारह वर्ष़ों से मैं दुनिया के बाइस देशों में संवाददाता का काम कर चुका हूं, लेकिन जैसा हृदय-विदारक दृश्य मैंने धरसाना में देखा, वैसा और कहर देखने को कहीं और नहीं मिला। कभी-कभी तो दृश्य इतना लोमहर्षक और दर्दनाक हो जाता कि मैं देख भी नहीं पाता और मुझे कुछ क्षणों के लिए आंखें बन्द कर लेनी पड़ती थी। स्वयंसेवकों का अनुशासन कमाल का था। गांधीजी की अहिंसा को उन्होंने रोम-रोम में बसा लिया था

पुलिस सत्याग्रहियों पर लोहे की नोक वाली लाठियों से प्रहार कर रहे थे। एक भी सत्याग्रही ने अपने बचाव के लिए हाथ नहीं उठाया। धरती सत्याग्रहियों से पट गई। वैब मिलर लिखते हैं, जहां मैं खड़ा था, वहाँ मुझे नंगी खोपड़ियों पर डंडों के चटाख-चटाख पड़ने की घिनौनी आवाजें सुनाई पड़ रही थीं। जिन पर लाठी पड़ती वे चारों खाने चित्त गिर रहे थे, मूर्छित हो रहे थे या टूटी खोपड़ी या टूटा कंधा लिए पीड़ा से छटपटा रहे थे। बैठे हुए आदमियों के पेट व गुप्तांगों पर पुलिस के सिपाही बड़ी क्रूरता से ठोकरें मर रहे थे। घंटों तक मूर्छित खून से तर-ब-तर लोगों को स्ट्रेचरों पर ले जाया जाता रहा। पहले दस्ते के बाद दूसरा दस्ता आगे बढ़ा। उनपर भी बर्बरतापूर्ण प्रहार किया गया। सरोजिनी नायडू और मणिलाल को गिरफ़्तार कर लिया गया। अस्थायी अस्पताल में 320 लोग घायल पड़े हुए थे। घायलों की चिकित्सा का कोई प्रबंध नहीं था। कई लोगों की मौत हो गई। मिलर की रिपोर्ट युनाइटेड प्रेस के तहत जब विश्वभर के 1350 से अधिक समाचार पत्रों में प्रकाशित हुई, तो सनसनी फैल गई।

दो दिनों तक सत्याग्रह रोक दिया गया, ताकि नए सत्याग्रही आ जाएं। किन्तु पुलिस ने नए स्वयंसेवकों को नहीं आने दिया। जो सत्याग्रही वहां थे, वे 6 जून तक बार-बार नमक फ़ैक्टरी में घुसने का प्रयत्न करते रहे। सत्याग्रही नमक की ढेरी से नमक लाने में असफल रहे। लेकिन इस आन्दोलन का लक्ष्य केवल नमक छीनना नहीं था, बल्कि दुनिया को बताना था कि ब्रिटिश शासन का आधार हिंसा और क्रूरता है। सरकार की दमनकारी नीति से लोग झुकने के बजाए सत्याग्रह पर और भी दृढ़ हो गए। सारे देश में लोग या तो नमक बनाते या नमक कारख़ानों पर हमला बोलते। बंबई उपनगर के वडाला के नमक डिपो पर पन्द्रह हज़ार स्वयंसेवकों ने सत्याग्रह किया। 18 मई को 470 सत्याग्रहियों को गिरफ़्तार कर लिया गया। इसी तरह का धावा सनिकट्टा नमक फैक्ट्री पर भी किया गया जिसमें 10,000 प्रदर्शनकारियों ने भाग लिया। सविनय अवज्ञा का पहला दौर अप्रैल से अक्तूबर तक चला। शहर ही नहीं गावों तक भी यह फैला। इस अहिंसात्मक आन्दोलन के धरना और बहिष्कार प्रमुख अंग थे। पूरी शालीनता और अहिंसा के साथ लोग अनुशासित कतारों में बैठ जाते और सरकारी आदेशों के बावज़ूद टस से मस नहीं होते। घुड़सवार पुलिस घोड़ा दौड़ाते हुए आती और लोग घुटनों में सिर रख कर हमले का इंतज़ार करते। भीड़ को बिखेर पाने में पुलिस असमर्थ हो जाती। पुलिस जब भी हिंसा का प्रयोग करती, सत्याग्रहियों का जन समर्थन और बढ़ जाता। पुलिस हमले से यदि सैंकड़ो घायल होते, तो धरने में शामिल होने के लिए हज़ारो नए लोग आ जाते।

उपसंहार

दक्षिण अफ़्रीका में गांधीजी ने सबसे पहला सत्याग्रह जातीय (नस्ली) भेदभाव के खिलाफ किया था। उसके बाद उन्होंने कई और सत्याग्रहों को नेतृत्व प्रदान किया। विदेशी शासन के ख़िलाफ़ महात्मा गांधी के नेतृत्व में हुए सभी सत्याग्रह आंदोलनों में नमक सत्याग्रह, राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक दमन, शोषण व अन्याय के ख़िलाफ़ अहिंसक प्रतिरोध का सबसे दमदार उदाहरण है। यह गांधी जी की अद्भुत कार्यशैली और प्रतिभा को दर्शाता है। इसने साबित किया कि नमक के ख़िलाफ़ सविनय अवज्ञा अकेले ही समूचे राष्ट्र को आंदोलित व स्पंदित कर उसे ‘पूर्ण स्वराज’ की प्राप्ति के रास्ते पर अग्रसर कर सकता है।

इस सत्याग्रह ने ब्रिटिश वर्चस्व तोड़ने के लिए भावनात्मक और नैतिक बल दिया था। गांधी जी का नमक आंदोलन और दांडी पदयात्रा आधुनिक काल के शांतिपूर्ण संघर्ष का सबसे अनूठा उदाहरण है। यह गांधी जी के ही नेतृत्व और प्रशिक्षण का चमत्कार था कि लोग अंग्रेजी हुकूमत की लाठियों के प्रहार को अहिंसात्‍मक सत्‍याग्रह से नाकाम बना गए। यह एक ऐसा सफल आंदोलन था जिसने न सिर्फ ब्रिटेन को बल्कि सारे विश्‍व को स्‍तब्‍ध कर दिया था। नमक अपने आप में कोई बहुत महत्‍वपूर्ण चीज नहीं था, लेकिन यह राष्‍ट्रीयता का प्रतीक बन गया। लोग नमक बनाने के लिए संघर्ष नहीं कर रहे थे बल्कि उसके जरिए वे यह साबित कर रहे थे कि सरकारी दमन बहुत दिनों तक नहीं चल सकता।

गांधी जी की जनता में प्रेरणा भरने की इस विस्मयकारी शक्ति को बहुत पहले ही श्री गोखले जी ने भांप लिया था और कहा था, इनमें मिट्टी के घोंघे से बड़े-बड़े बहादुरों का निर्माण करने की शक्ति है। राष्ट्रीय उद्देश्य को पाने के लिए एक कार्य-प्रणाली के रूप में शांतिपूर्ण सविनय अवज्ञा आंदोलन की  उपयोगिता पर अब किसी को संदेह नहीं रह गया था। लोगों में यह विश्वास जड़ जमा चुका था कि वे स्वतन्त्रता संग्राम में विजय की ओर कदम बढ़ा चुके हैं। क़रीब एक लाख सत्याग्रही, जिनमें 17,000 महिलाएं थीं, जेल में थे। इन आंदोलनों में स्त्रियों और किशोरों का शामिल होना इस अहिंसात्मक आन्दोलन की एक अन्य विशेषता थी। स्कूलों और कालेजों का बहिष्कार कर छात्र भी स्वतंत्रता के आन्दोलन में हिस्सा लेने लगे थे। प्रशासन करीब-क़रीब ठप्प पड़ गया था। जिस वायसराय ने गांधीजी की चुटकी भर नमक से सरकार को परेशान कर देने की योजना की हंसी उड़ाई थी, अब महसूस करने लगे थे कि स्थिति पर उनका नियंत्रण खो चुका है। फरवरी 1931 में इरविन ने गांधीजी के सामने स्वीकार किया था, आपने तो नमक के मुद्दे को लेकर अच्छी रणनीति तैयार की है। उधर देश के लोगों के मन में यह आशा बंध चली थी कि अहिंसात्मक मार्ग ही हमें स्वराज्य की ओर ले जाएगा।

लोग नमक के ज़रिए यह साबित कर रहे थे कि सरकारी दमन बहुत दिनों तक नहीं चल सकता।  लार्ड इरविन ने दमन की व्यर्थता महसूस की। उसने दिसम्बर में कलकत्ता में कहा, हालाकि मैं सविनय अवज्ञा की ज़ोरदार ढंग से निन्दा करता हूं, फिर भी यह हमारी भयंकर भूल होगी कि राष्ट्रवाद के शक्तिशाली आशय को कम करके आंके। सरकार के कठोर कदमों से न तो कोई पूर्ण व स्थायी हल निकाला जा सका है और न शायद कभी निकाला जा सकेगा। यह सब गांधीजी की अभूतपूर्व प्रेरणा का ही परिणाम था। गांधीजी द्वारा आरंभ किया हुआ आन्दोलन सफल हुआ। इस सफलता का श्रेय गांधीजी की नीति,हिंसा का प्रयोग नहीं करना है’ को दिया जाना चाहिए

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां-  राष्ट्रीय आन्दोलन

संदर्भ : यहाँ पर

 

गुरुवार, 1 मई 2025

326. सत्याग्रह आश्रम वर्धा

राष्ट्रीय आन्दोलन

326. सत्याग्रह आश्रम वर्धा



1930

जेल से छूटकर गांधीजी थोड़े दिनों के लिए साबरमती आश्रम आए। उन्होंने आश्रम की बहनों को सभा बुलाई। उनसे जेल जाने का आह्वान किया। आश्रम के बच्चों को हरिजन कन्या-छात्रालय में अनसूया बहन के कहने पर रखा गया। 1930 में गांधी जी ने साबरमती आश्रम छोड़ दिया और उन्होंने प्रतीज्ञा की, जब तक देश विदेशी दासता से मुक्त नहीं होता, मैं साबरमती आश्रम में प्रवेश नहीं करूंगा। इसके बाद वे सत्याग्रह आश्रम वर्धा चले आए।

जमनालाल बजाज अपने परिवार के साथ शुरुआती दिनों में कुछ समय साबरमती आश्रम में रहे थे ताकि उनके बच्चे गांधीजी की शिक्षाओं से प्रभावित हो सकें। साबरमती में ही उनकी सबसे बड़ी बेटी कमला की शादी साधारण आश्रम शैली में हुई थी। जमनालाल ने गांधीजी से वर्धा में आश्रम स्थापित करने के लिए विनोबा की सेवाएँ माँगीं। लेकिन साबरमती आश्रम के प्रबंधक मगनलाल ने कहा कि वे विनोबा को नहीं छोड़ सकते। विनोबा को बाद में गुजरात विद्यापीठ में शिक्षक के रूप में भेजा गया। जमनालाल ने कुछ समय बाद गांधीजी से अपना अनुरोध दोहराया और गांधीजी ने विनोबा को वर्धा भेजा जहाँ विनोबा ने आश्रम विकसित करने में जमनालाल की मदद की। गांधीजी अब विनोबा के साथ रहने और उनके काम को स्वयं देखने के लिए वर्धा गए थे। वे बहुत प्रसन्न थे और वहाँ रहते हुए उन्हें बहुत शांति महसूस हुई।

वर्धा में सेवाग्राम आश्रम बनाया जाने लगा। यह वर्धा से पांच मील की दूरी पर था। बहुत सारे लोग इस आश्रम के बनवाने में सहयोग करने लगे। गांधीजी सेवाग्राम स्थल पर ही झोपड़ी बनाकर रह रहे थे। बाक़ी लोग शाम को वर्धा लौट जाते। वर्धा से अश्रम स्थल का रास्ता बेहद ख़राब था। सड़क उबड़-खाबड़, ऊंची-नीची थी। लोगों को आने-जाने में काफ़ी परेशानी का सामना करना पड़ रहा था।

कुछ लोगों ने बापू को सलाह दी कि यदि वे प्रशासन को पत्र लिखें तो वह रास्ता प्रशासन के सहयोग से जल्दी बन जाएगा और लोगों को आने-जाने में सुविधा होगी। गांधी जी ने मुस्कुराते हुए कहा, प्रशासन को लिखे बग़ैर भी यह रास्ता ठीक हो सकता है।

गांधी जी का कहा लोग समझ नहीं पाए। गांधी जी ने उन्हें समझाते हुए कहा, यदि हर कोई वर्धा से आते-जाते समय इधर-उधर पड़े पत्थरों को रास्ते में बिछाता जाय, तो रास्ता ठीक हो सकता है।

अगले दिन से ही लोग आते-जाते समय पत्थरों को रास्ते के लिए डालते जाते और उसे समतल करते जाते। गांधीजी के एक प्रशंसक बृजकृष्ण चांदीवाल, जो शरीर से मोटे भी थे, एक दिन पांच मील के उस ख़राब रास्ते को बड़ी कठिनाई से तय कर हांफते हुए आश्रम पहुंचे और पसीना पोंछते हुए गांधीजी से बोले, क्या दो-दो पत्थर इधर से उधर कर देने से यह रास्ता बन जाएगा? यदि आप रास्ते का काम प्रशासन से नहीं करवा सकते तो बताइए कितना पैसा लगेगा इसके मरम्मत में, इस रास्ते के निर्माण पर आने वाला ख़र्च मैं वहन करूंगा।

गांधीजी मुस्कुराते हुए बोले, आपके दान से हमें लाभ होगा। सही है। लेकिन धन दान नहीं हमें श्रमदान चाहिए। बूंद-बूंद से घड़ा भरता है! यदि आप भी हमारे इस श्रमदान यज्ञ में जुड़ेंगे तो इसके तीन फ़ायदे होंगे। एक हमारा आश्रम ठीक होगा। दो आपका धन बचेगा और तीन आपका मोटापा भी कम होगा। आप निरोगी होंगे।

गांधीजी आश्रम का निर्माण सहयोग, सेवा और समर्पण से ही पूरा परवाना चाहते थे।

मुन्नालाल शाह के अनुरोध पर गांधी जी ने सेवाग्राम की स्थापना के दौरान मीरा बहन को भी बुला लिया। मीरा बहन आ गईं। उन्होंने मीरा बहन को पास के एक गांव में रहने को राज़ी किया। गांधीजी अस्वस्थ रहते थे। उनका रक्तचाप बिगड़ गया। डॉक्टरों ने उन्हें तन्हा वार्ड में रखने की सलाह दी।

विनोबा भावे वर्धा आश्रम के प्रबंधक थे। आश्रम का औसत मासिक व्यय 3,000 रुपये था, जो मित्रों द्वारा वहन किया जाता था। आश्रम के पास 132 एकड़ 38 गुंठा क्षेत्रफल वाली भूमि थी, जिसका मूल्य रु. 26,972-5-6, और इमारतें रु. 2,95,121-15-6, जो निम्नलिखित न्यासी बोर्ड के पास थी, 1. शेठ जमनलाल बजाज, 2. सार्जेंट. रेवाशंकर जगजीवन झावेरी, 3. महादेव हरिभाई देसाई, 4. इमाम अब्दुल कादिर बावज़ीर और 5. छगनलाल खुशालचंद गांधी। आश्रम में 55 कर्मचारी, ए.आई.एस.ए. तकनीकी स्कूल के 43 शिक्षक और छात्र, 5 पेशेवर बुनकर, 30 कृषि मजदूर मिलाकर कुल 130 पुरुष थे। आश्रम में 49 बहनें, 10 पेशेवर मज़दूर, 7 बुनकर मिलाकर कुल 66 महिलाएँ थीं। 78 बच्चे मिलाकर आश्रम के सदस्यों का कुल योग 277 था।

सितंबर 1933 में गांधीजी वर्धा के सत्याग्रह आश्रम में चले गए। 30 सितंबर को उन्होंने साबरमती आश्रम को हरिजन हित के लिए सर्वेंट्स ऑफ अनटचेबल्स सोसाइटी को दे दिया। उन्होंने लिखा: "जब अगस्त 1932 में संपत्ति को छोड़ दिया गया था, तो निश्चित रूप से यह उम्मीद थी कि किसी दिन, चाहे सम्मानजनक समझौते के माध्यम से या भारत के अपने अधिकार में आने के बाद, ट्रस्टी फिर से कब्जा कर लेंगे। लेकिन नए प्रस्ताव के तहत, ट्रस्टी खुद को पूरी तरह से संपत्ति से अलग कर लेते हैं।"

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां-  राष्ट्रीय आन्दोलन

संदर्भ : यहाँ पर